गाँव का “बहुत” भूत
गाँव का नाम था भीरापुर — चारों तरफ़ खेत, एक पुरानी हवेली, और बीच में एक पीपल का पेड़, जिसके बारे में सब कहते थे कि वहाँ “बहुत” रहता है।
“बहुत कौन?” जब भी कोई नया आदमी पूछता, गाँव वाले सिर्फ़ एक शब्द कहते —
“भूत। जो बहुत होता है।”
बचपन से ही बच्चों को सिखाया जाता — “सूरज ढले पहले घर आ जाना, नहीं तो बहुत पकड़ लेगा।”
औरतें जब किसी की साड़ी हवा में उड़ते देखतीं, तो कहतीं, “देखा? बहुत आया था!”
जब किसी के घर से दूध गायब होता या कोई बच्चा रोता, जवाब तय था — बहुत आया होगा।
पर कोई नहीं जानता था कि ये “बहुत” है क्या।
एक दिन, शहर से पढ़ाई करके लौटा अर्जुन, जो अब इस बातों पर हँसता था।
“डरपोक बना रखा है सबको एक काल्पनिक भूत से,” वो कहता।
उसने ठान लिया — उस रात हवेली में जाएगा, और साबित करेगा कि बहुत कुछ नहीं, सिर्फ़ डर है।
रात को वो टॉर्च लेकर निकला। हवेली वीरान थी, मगर एकदम चुप नहीं। जैसे कोई साँस ले रहा हो।
अर्जुन ने पहली बार सुना — धीमी-धीमी फुसफुसाहटें।
“क्यों आया तू?”
“तेरी हिम्मत कैसे हुई?”
“बहुत ने सबको रोका था…”
दीवारों पर परछाइयाँ लहराईं। अर्जुन का दिल काँपने लगा। वो पीछे मुड़ा, पर रास्ता गायब।
तभी उसे दिखा — एक लंबा, धुँधला सा चेहरा। आँखें कोयले जैसी काली। पहनावा मिट्टी से सना, और शरीर से कोई गंध नहीं — बस ठंड।
“तू भी अब बहुत होगा…”
ये आख़िरी शब्द थे जो अर्जुन ने सुने।
सुबह, हवेली खाली थी। अर्जुन कभी नहीं मिला। सिर्फ़ उसकी टॉर्च और एक पर्ची मिली —
“अब मैं भी बहुत हूँ।”
अब गाँव में लोग कहते हैं — बहुत अब दो हो गए हैं।
